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आपराधिक कानून

CrPC की धारा 202(1) के तहत प्रक्रिया अनिवार्य

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 25-Aug-2023

ओडी जेरांग बनाम नबज्योति बरुआ और अन्य।

"दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 202 के तहत प्रक्रिया अनिवार्य है जब कोई आरोपी मज़िस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहता है।"

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और पंकज मिथल

स्रोत- उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों ?

हाल ही में ओडी जेरांग बनाम नबज्योति बरुआ और अन्य के मामले उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 202(1) के तहत यह प्रक्रिया अनिवार्य है, जब आरोपियों में से एक मज़िस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र के बाहर किसी स्थान का निवासी हो।

पृष्ठभूमि

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 200 के तहत दायर शिकायत में शिकायतकर्त्ता है।
  • मजिस्ट्रेट ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 200 के तहत याचिकाकर्त्ता की जांच करने के बाद समन जारी किया।
  • इसके बाद, आरोपियों ने गुवाहाटी उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और इस आधार पर आपत्ति जताई कि यद्यपि कुछ आरोपी संबंधित मज़िस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र से परे किसी जगह पर रह रहे थे, इसलिये दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 202 (1) की अनिवार्य आवश्यकता का पालन नहीं किया गया।
  • उच्च न्यायालय ने समन जारी करने के आदेश को रद्द कर दिया और शिकायत को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 202 के चरण से निपटने के लिये मज़िस्ट्रेट के पास भेज दिया।
  • याचिकाकर्त्ता द्वारा उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक विशेष अनुमति याचिका दायर की गई।
  • उच्चतम न्यायालय ने विशेष अनुमति याचिका खारिज़ कर दी।

विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition (SLP)

  • भारत में विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition (SLP) भारत की न्यायिक प्रणाली में एक प्रमुख स्थान रखती है।
  • उच्चतम न्यायालय को केवल उन मामलों में विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition (SLP) पर विचार करने का अधिकार है जब कानून का कोई सारभूत प्रश्न शामिल हो।
  • अनुच्छेद 136 भारत के उच्चतम न्यायालय को भारत के क्षेत्र में किसी भी न्यायालय/अधिकरण द्वारा पारित किसी भी मामले या कारण में किसी भी निर्णय या आदेश या डिक्री के खिलाफ अपील करने की विशेष अनुमति देने की विशेष शक्ति प्रदान करता है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 202(1) के तहत प्रक्रिया अनिवार्य है जब आरोपियों में से एक मज़िस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र के बाहर किसी स्थान का निवासी हो।
  • पीठ ने यह भी कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 202 की उप-धारा 1 में "होगा" शब्द के उपयोग और 2005 के अधिनियम संख्या 25 द्वारा किये गए संशोधन के उद्देश्य को देखते हुए इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है और ऐसे मामले में यह प्रावधान अनिवार्य माना जाएगा जिसमें अभियुक्त मज़िस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र से बाहर किसी स्थान पर रह रहा हो।

कानूनी प्रावधान

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 200

  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 200 याचिकाकर्त्ता की जांच से संबंधित है। यह कहती है कि -

किसी की शिकायत पर किसी अपराध का संज्ञान लेने वाला मज़िस्ट्रेट शपथ पर शिकायतकर्त्ता और उपस्थित गवाहों, यदि कोई हो, की जांच करेगा और ऐसी परीक्षा का सार लिखित रूप में लिखा जाएगा और शिकायतकर्त्ता और गवाहों तथा मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा।

बशर्ते कि, जब शिकायत लिखित रूप में की जाती है, तो मज़िस्ट्रेट को शिकायतकर्त्ता और गवाहों की जांच करने की आवश्यकता नहीं है-

(A) यदि किसी लोक सेवक ने अपने आधिकारिक कर्तव्यों या न्यायालय के निर्वहन में कार्य करने या कार्य करने का इरादा रखते हुए शिकायत की है; या

(B) यदि मजिस्ट्रेट धारा 192 के तहत मामले को जांच या सुनवाई के लिये किसी अन्य मज़िस्ट्रेट को सौंप देता है।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 202

  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 202 ज़िस्ट्रेट की ओर से प्रक्रिया के मुद्दे को स्थगित करने से संबंधित है। यह कहती है कि –

(1) यदि कोई मज़िस्ट्रेट ऐसे अपराध का परिवाद प्राप्त करने पर, जिसका संज्ञान करने के लिये वह प्राधिकृत है या जो धारा 192 के अधीन उसके हवाले किया गया है, ठीक समझता है तो और ऐसे मामले में जहाँ अभियुक्त ऐसे किसी स्थान में निवास कर रहा है जो उस क्षेत्र से परे है, जिसमें वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका का जारी किया जाना मुल्तवी कर सकता है और यह विनिश्चित करने के प्रयोजन से कि कार्यवाही करने के लिये पर्याप्त आधार है अथवा नहीं, या तो स्वयं ही मामले की जांच कर सकता है या किसी पुलिस अधिकारी द्वारा या अन्य ऐसे व्यक्ति द्वारा, जिसको वह ठीक समझे अन्वेषण किये जाने के लिये निदेश दे सकता है :

परंतु अन्वेषण के लिये ऐसा कोई निदेश वहाँ नहीं दिया जाएगा —

(क) जहाँ मज़िस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह अपराध जिसका परिवाद किया गया है अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है; अथवा

(ख) जहाँ परिवाद किसी न्यायालय द्वारा नहीं किया गया है जब तक कि परिवादी की या उपस्थित साक्षियों की (यदि कोई हो) धारा 200 के अधीन शपथ पर परीक्षा नहीं कर ली जाती है।

(2) उपधारा (1) के अधीन किसी जांच में यदि मजिस्ट्रेट ठीक समझता है तो साक्षियों का शपथ पर साक्ष्य ले सकता है :

परन्तु यदि मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह अपराध जिसका परिवाद किया गया है अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो यह परिवादी से अपने सब साक्षियों को पेश करने की अपेक्षा करेगा और उनकी शपथ पर परीक्षा करेगा।

(3) यदि उपधारा (1) के अधीन अन्वेषण किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो पुलिस अधिकारी नहीं है तो उस अन्वेषण के लिये उसे वारण्ट के बिना गिरफ्तार करने की शक्ति के सिवाय पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को इस संहिता द्वारा प्रदत्त सभी शक्तियाँ होंगी।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 202 के आवश्यक तत्त्व

  • मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान लेने के बाद धारा 202 लागू होती है।
  • मजिस्ट्रेट को जांच करने का अधिकार है या पुलिस अधिकारी को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 192 या धारा 202 के तहत प्राप्त शिकायत के तहत विचार के लिये रखे गए मामले की जांच करने का निर्देश दे सकता है।
  • शिकायत प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट आरोपी को समन या गिरफ्तारी वारंट जारी करने को स्थगित कर सकता है और इस दौरान, वे या तो स्वयं जांच कर सकते हैं या पुलिस को जांच करने का निर्देश दे सकते हैं।

वाडीलाल पांचाल बनाम दत्ताराय दुलाजी घाडीगांवकर और अन्य के मामले (1960) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 202 का उद्देश्य प्रक्रिया के मुद्दे को उचित ठहराने के उद्देश्य से शिकायत की प्रकृति का निर्धारण करना है।